-22- 8th June,2014....
Delhi ......
B.S.Sharma.........
(Rachnakar ).......
" 26 जनवरी ,2001 ,"
पूरे देश में ,
था तिरंगे झंडे का बोलबाला ,
कतारों में थे खड़े ,
बनना था जिनको भारत का रखवाला ,
जानते हो दिन क्या था ,
26 ,जनवरी ,2001 ........
घड़ी की सुई ने ,
9.46.. बजा डाला।
कुदरत ने निकाला ,
भारत का दिवाला ,
किसको ज्ञान था उस पल का ,
थे सभी अनजान ,
सिमट चला जमीं की गोद में ,
बेरहमी तूफान . ।
रो उठा आशमां ,
बुझ चली लालिमा ,
हवाएं बन गई पराई ,
ना चाल चली , ना कोई चतुराई,
छण भर में बना डालें खण्डहर ,
जो अभी महल थे ,
बन गई कब्रगाह ,सपनो की नगरी ,
चिंखे चिलाहटों से गूँज उठा था शहर ,
फैलीं विश्वभर मेँ गूंज मच गया था कहर ,
न कुछ बचा ,न, बचे, बचाने वाले,
उड़ गए ख्वाब बनकर महलों में रहने वाले ,
न मौका मिला इतना जो ,
पूछे खुदा से , कसूर क्या हुआ ऐ रब ,
जो कलम तोड़ सजा दी ,
निगाहें रहमत भरी ,संगीन बना डाली ,
ममता मिट गई जड़ से ,
गोद माओं की खाली कर डाली ,
वसुंधरा ने की ऐसी आंखमिचौनी ,
खेली रज रज के खूनी होली।
क्या नर क्या नारी ,
जड़ क्या चेतन,क्या सदाचारी ,
खंडहर बन गए सब महल अटारी ,
ना राजा देखा ना भिखारी ,
छिप गए सब यन्त्र तन्त्र ,
काम आया ना कोई जंतर ना मन्त्र ,
सो गए सभी आँख बंद करके ,
उठते कैसे ?
बचा न कोई उठाने वाला ,
न आंसू थे ना प्याले ,
ना भक्ष्क थे ना रखवाले ,
शिकायत किसकी करते ,किसको करते
जहां मिलों तक शिकायत कर्ता ना रहा,
सभी भक्ष्क थे , ना किसी को था कोई गिला ,
ना बचा आशियां ,ना बचे रहने वाले ,
ना शिकायत ही कोई ना शिकायत करने वाले
बन गया वो बेप्रीत छन भर के वास्ते
डस गया छन भर में बन कर ,
सुदर्शन चक्र वाले,
मौत तो सभी को आती है ,
मगर शिकवा एक है ,
जहां मिलों तक शिकायत कर्ता ना बचा। . . .....
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Delhi ......
B.S.Sharma.........
(Rachnakar ).......
" 26 जनवरी ,2001 ,"
पूरे देश में ,
था तिरंगे झंडे का बोलबाला ,
कतारों में थे खड़े ,
बनना था जिनको भारत का रखवाला ,
जानते हो दिन क्या था ,
26 ,जनवरी ,2001 ........
घड़ी की सुई ने ,
9.46.. बजा डाला।
कुदरत ने निकाला ,
भारत का दिवाला ,
किसको ज्ञान था उस पल का ,
थे सभी अनजान ,
सिमट चला जमीं की गोद में ,
बेरहमी तूफान . ।
रो उठा आशमां ,
बुझ चली लालिमा ,
हवाएं बन गई पराई ,
ना चाल चली , ना कोई चतुराई,
छण भर में बना डालें खण्डहर ,
जो अभी महल थे ,
बन गई कब्रगाह ,सपनो की नगरी ,
चिंखे चिलाहटों से गूँज उठा था शहर ,
फैलीं विश्वभर मेँ गूंज मच गया था कहर ,
न कुछ बचा ,न, बचे, बचाने वाले,
उड़ गए ख्वाब बनकर महलों में रहने वाले ,
न मौका मिला इतना जो ,
पूछे खुदा से , कसूर क्या हुआ ऐ रब ,
जो कलम तोड़ सजा दी ,
निगाहें रहमत भरी ,संगीन बना डाली ,
ममता मिट गई जड़ से ,
गोद माओं की खाली कर डाली ,
वसुंधरा ने की ऐसी आंखमिचौनी ,
खेली रज रज के खूनी होली।
क्या नर क्या नारी ,
जड़ क्या चेतन,क्या सदाचारी ,
खंडहर बन गए सब महल अटारी ,
ना राजा देखा ना भिखारी ,
छिप गए सब यन्त्र तन्त्र ,
काम आया ना कोई जंतर ना मन्त्र ,
सो गए सभी आँख बंद करके ,
उठते कैसे ?
बचा न कोई उठाने वाला ,
न आंसू थे ना प्याले ,
ना भक्ष्क थे ना रखवाले ,
शिकायत किसकी करते ,किसको करते
जहां मिलों तक शिकायत कर्ता ना रहा,
सभी भक्ष्क थे , ना किसी को था कोई गिला ,
ना बचा आशियां ,ना बचे रहने वाले ,
ना शिकायत ही कोई ना शिकायत करने वाले
बन गया वो बेप्रीत छन भर के वास्ते
डस गया छन भर में बन कर ,
सुदर्शन चक्र वाले,
मौत तो सभी को आती है ,
मगर शिकवा एक है ,
जहां मिलों तक शिकायत कर्ता ना बचा। . . .....
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